प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज भाग-2 से अवतरित किया गया है। इसे नागार्जुन के द्वारा रचित कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ से लिया गया है। कवि लंबे समय तक कहीं बाहर रहने के पश्चात् वापिस अपने घर लौटा था और उसने अपने बच्चे के मुँह में जो छोटे-छोटे दाँतों की सुंदर चमक से शोभायमान मुसकान को देखा था। इससे उसे अपार प्रसन्नता हुई थी।
व्याख्या- कवि कहता है कि हे सुंदर दाँतों वाले मेरे बच्चे, यदि तुम्हारी माँ तुम्हारे और मेरे बीच माध्यम न बनी होती तो मैं कभी भी तुम्हें और तुम्हारी सुंदर पुष्ट को देख न पाता और न ही तुम्हें जान पाता। तुम धन्य हो और तुम्हारी माँ भी धन्य है। मैं तुम दोनों का आभारी हूँ। मैं तो लंबे समय से कहीं बाहर था इसलिए मैं तो तुम्हारे लिए कोई दूसरा हूँ, पराया हूँ। मेरे प्यारे बच्चे, मैं तुम्हारे लिए मेहमान की तरह हूँ इसलिए तुम्हारा मेरे साथ कोई संबंध नहीं रहा, तुम्हारे लिए मैं अनजाना-सा हूँ। मेरी अनुपस्थिति में तुम्हारी माँ ही आत्मीयतापूर्वक तुम्हारा पालन-पोषण करती रही। तुम्हें अपना प्यार प्रदान करती रही। वही तुम्हारा पंचामृत से पालन-पोषण करती रही। तुम मुझे देख कर हैरान से थे और मेरी ओर कनखियों से देख रहे थे। जब कभी अचानक तुम्हारी और मेरी दृष्टि मिल जाती थी तो मुझे तुम्हारे मुँह में तुम्हारे चमकते हुए सुदर दाँतों से युक्त मुसकान दिखाई दे जाती थी। सच ही मुझे तुम्हारी दूधिया दांतों से सजी मुसकान बहुत सुंदर लगती है। मैं तो तुम्हारी मुसकान पर मुग्ध हूँ।