संस्कृत मे एक प्रसिद्ध वाक्य कहा गया है, ‘युद्धस्य कथा रम्या’ । ये उक्ति सर्वथा उचित है, पर युद्ध की कथा मनोहारी होती है युद्ध कदापि नहीं। जब बात दुनिया के सबसे भयानक युद्ध यानि दूसरे विश्वयुद्ध की हो तब तो कवचित नहीं।
दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले और युद्ध के दरमियान भी अनेक राष्ट्रो के बीच कई समजोते हुए थे। कुछ सार्वजनिक थे कुछ गुप्त। नेता और नेताओ के बीच, सेना और सेनाओ के बीच कुछ निभाने के इरादे से तो कुछ तोड़ने के लिए ही समजौते थे।
वैसे भी युद्ध जूठ, फरेब, धोखा, विश्वासघात इन सब का मिश्रण होता है, और ये महायुद्ध था। हर मक्कारी अपने चरम पर दिखनी थी। जर्मनी और रूस के बीच संधि थी, जिसे तोड़कर हिटलर ने रूस पर आक्रमण किया। तारीख 22 जून 1941, आक्रमण का नाम था ‘ऑपरेशन बारबारोसा’ और ध्येय पूरे रूस को हड़प लेना।
कभी आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ है। यही हिटलर के साथ हुआ। रूस की कातिल ठंड ने जर्मनी को मार डाला। नाझी सैनिक बुरी तरह हारे, असंख्य सैनिक मरे और साजो-सामान का भारी नुकसान हुआ। जर्मनी ने अपने सैनिक और युद्ध सामग्री ही नहीं खोयी, एक मजबूत युद्ध साथी भी गंवाया।
विश्वयुद्धमे अगर रूस धरी राष्ट्रो के पक्ष मे होता तो क्या होता? … जो भी होता, जो हुआ उससे अलग होता….!! पर जो हुआ वही इतिहास है।
इस आक्रमण और इस दिन का इतिहास मे महत्व इस लिए ही है, की उसने युद्ध का रुख ही नहीं, संभावित परिणाम भी पलट दिया।