रे राजहंस किमिति त्वमिहाSSगतोऽसि
योSसौ बकः स इह हंस इति प्रतीतः ।
तद्गम्यतामनुपदेन पुनः स्वभूमौ
यावद्वदन्ति च बकं खलु मूढ लोकाः ॥
– सुभाषित रत्नाकर (शार्ङ्गधर )
भावार्थ –
अरे राजहंस ! तुम यहां क्यों आये हो?
यहां तो जो बगुले होते हैं वे ही हंस कहलाते हैं।
इस लिये तुम जब तक यहां के मूर्ख लोग तुम्हें भी बगुला समझें
तुम उलटे पांव यहां से अपने मूल निवासस्थान को वापस चले जाओ।
प्रस्तुत सुभाषित एक ‘हंसान्योक्ति’ के रूप से संकलित है। संस्कृत साहित्य में राजहंस का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का वह वाहन है तथा यह भी मान्यता है कि उसमे नीर-क्षीर विवेक (दूध मिले हुए जल में दूध और जल को अलग करना ) की शक्ति होती है और वे मानसरोवर के जल में विहार करते हैं। ऐसा हंस यदि किसी ऐसे स्थान में जहां बगुलों का बाहुल्य हो जाय तो उस का सम्मान नहीं हो सकता है। लाक्षणिक रूप से इसका तात्पार्य यह है कि जिस सभा या स्थान में मूर्खों का बाहुल्य और आधिपत्य हो उस स्थान में विद्वान और योग्य व्यक्ति का सम्मान नहीं होता है और वहां न रहने में ही भलाई है।
Re raajhamsa kimiti tvamihaagatosi
Yosau bakah sa iha hansa iti prateetah.
Tadgamyataamanupadena punh svabhoomau.
Yaavadvadanti cha bakam khalu moodha lokaah.
O beautiful Swan! why have you come to this place? Here cranes are known as swans. Therefore, so long as you are certainly treated as a crane by the foolish inhabitants of this place, it is better for you to go back immediately to your original place of living.