Home » Aside » हरिवंश राय बच्चन – कवि परिचय : आत्म-परिचय और एक गीत
हालावादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हरिवंशराय बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 ई. को इलाहाबाद (उ., प्र.) में हुआ। बच्चन जी को हिंदी में हालावाद (1932-1937) का सर्वश्रेष्ठ कवि कहा गया है।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद और स्वाधीनता-संघर्ष के हर आदोलन की असफलता से उपजे अवसाद, पराजय बोध, आर्थिक एवं सामाजिक विडंबनाओं ने व्यक्ति समाज और राष्ट्र के जीवन को बहुत हद तक कुंठाग्रस्त एवं विषादग्रस्त कर दिया था। उस समय जनमानस विक्षुब्ध, कुपित और कुंठित था।
ऐसे वातावरण में हरिवंशराय बच्चन सहज सुबोध भाषा-शैली में ऐसी लयपूर्ण गीत-रचनाएँ लेकर सामने आए जिन्होंने तत्कालीन जन-मानस के मन में आशा-विश्वास और उन्मुक्त जीवन- भोग के प्रति उत्कंठा जागृत की। उस समय के कवि-सम्मेलनों के मंचों पर अपनी रसाभिषिक्त कविताओं का सस्वर पाठ भी करने लगे थे। उस् समय हताश मध्यवर्गीय समाज को इन कविताओ में एक नई ताजगी जिजीविषा और जीवन- भोग की सच्चाई का पता लगा। बच्चन जी हिंदी काव्य-जगत में प्रतिष्ठित हो गए।
हरिवंशराय बच्चन के पिता का नाम प्रतापनारायण और माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। इनके पिता इलाहाबाद के अग्रेजी दैनिक ‘पायनियर’ में काम करते थे। ‘बच्चन’ घर में पुकारने का नाम था जो आगे चलकर वंशगोत्र के रूप में चल पड़ा। बच्चन जी की प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद के म्युनिसिपिल स्कूल में हुई। 1925 में हाई स्कूल तथा1929 मे बी. ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया।
1954 में बच्चन जी कैब्रिज विश्वविद्यालय से ईट्स ‘पर अपना शोध कार्य पूर्ण करके स्वदेश लौटे। एक वर्ष तक अध्यापन कार्य करने के पश्चात् कुछ समय तक आकाशवाणी प्रयाग में काम किया। इसके बाद भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में विशेष अधिकारी बना दिए गए। 1955 से 65 तक इसी पद पर कार्य करते रहे।
1966 में बच्चन जी को तत्कालीन राष्ट्रपति की ओर से राज्यसभा का सदस्य चुना गया। इसी वर्ष इनको ‘चौंसठ रूसी कविताएँ’ पर ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’ मिला। 1969 में ‘दो चट्टानें’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1976 में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा ‘पद्य भूषण’ से अलंकृत किया गया। 1992 में उन्हें ‘सरस्वती पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
हरिवंशराय बच्चन जी की लेखन-प्रतिभा बहुमुखी है। आपने गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में पर्याप्त सृजन कार्य किया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं
काव्य रचनाएँ: मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा-निमंत्रण, आकुल अतर, सतरंगिनी हलाहल मिलन-यामिनी सूत की माला, खादी के फूल दो चट्टानें, धार के इधर-उधर आदि।
गद्य रचनाएँ: क्या भूलूँ क्या याद करूँ (आत्मकथा), नीड् का निर्माण फिर, बसेरे से दूर प्रवास की डायरी नए-पुराने झरोखे टूटी-छूटी कडियाँ आदि।
शोध प्रबंध: डब्ल्यू.बी. ईट्स एंड ऑकल्टिज्म।
अनूदित रचनाएँ: उमर ख़य्याम की मधुशाला, जनगीता चौंसठ रूसी कविताएँ, नागरगीता आदि।
नीचे बच्चन जी की दो कविताएँ आत्म-परिचय और एक गीत संकलित हैं ।
आत्म-परिचय (1937)
इस कविता में कवि हरिवंशराय बच्चन ने अपने स्वभाव एवं व्यक्तित्व के बारे में बताया है। कवि जग के जीवन से जुड़ा भी है और इससे पृथक् भी है। वह इस संसार का भार लिए हुए फिरता है लेकिन उसके जीवन में प्यार की भावना भी है। यद्यपि यह संसार लोगों को कष्टों के अलावा कुछ नहीं देता फिर भी कवि जग से कटकर नहीं रहता। वह तो प्रेम रूपी सुरा का पान करता रहता है। वह अपनी मस्ती में मस्त रहता है। उसने जग की कभी परवाह नहीं की। वह अपनी इच्छा से ही चलता है, जग से निर्देशित नहीं होता। यह संसार कवि को बहुत भाता भी नहीं है। संसार अपने ढंग से लोगों को भव-सागर से पार उतरने के उपाय बताता रहता है पर कवि तो अपनी ही मस्ती में रहता है। उसके ऊपर तो यौवन का उन्माद छाया रहता है। वैसे उसके उन्माद के पीछे अवसाद (दु:ख) भी छिपा रहता है। कवि का अपना अलग से व्यक्तित्व है और जग का अपना। दोनों में कोई नाता नहीं है। वह तो रोने में राग छिपाए रखता है। उसकी शीतल वाणी में भी आग होती है। कवि का रोना भी लोगों को गीत प्रतीत होता है। कवि तो दीवानेपन की अवस्था में घूमता रहता है।
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भ्ाव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
एक गीत (1937)
‘एक गीत’ शीर्षक गीत में श्री हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने अपने जीवन के अकेलेपन की कुंठा को अभिव्यक्त किया है। दिनभर की यात्रा से थका हुआ पथिक भी, यह सोचकर कि अब मंजिल अधिक दूर नहीं है, अधिक तेजी से चलने लगता है। उसके पैरों की थकान केवल इस विचार से दूर हो जाती है कि घर पर उसके परिवार के लोग उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। यह सोचकर ही उसके पैरों की गति और बढ़ जाती है। चिड़िया भी दिन भर की उड़ान के बाद थक जाती है लेकिन घोंसले में बैठे उसके बच्चे बाहर झाँककर उसकी राह देख रहे होंगे, इस विचार के मन में आते ही उसके पंखों में तेजी आ जाती है। लेकिन कवि का जीवन तो एकाकी है। उसकी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् उसकी प्रतीक्षा करने वाला कोई भी नहीं है। अब कौन घर पर बैठकर उसके लिए व्याकुल होगा? इसी निराशा के कारण कवि का मन कुंठा से भर जाता है और उसकी गति शिथिल पड़ जाती है। कवि ने इस कविता द्वारा अपने जीवन के अकेलेपन की पीड़ा को वाणी दी है।
Adorable person…and his adorable poems…will always live long in reader’s hearts?? ……
nice poem