विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के आठवें प्रधानमंत्री थे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके है। प्रधानमंत्री के तौर पर उनका शासन 2 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990, एक साल से कम चला। राजीव गांधी सरकार के पतन के कारण प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह (जन्म- 25 जून 1931 उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 27 नवम्बर 2008, दिल्ली) ने आम चुनाव के माध्यम से 2 दिसम्बर 1989 को यह पद प्राप्त किया था। सिंह प्रधान मंत्री के रूप में भारत की पिछड़ी जातियों में सुधार करने की कोशिश के लिए जाने जाते हैं।
जन्म एवं परिवार
विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून 1931 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद ज़िले में एक राजपूत ज़मीनदार परिवार में (मंडा संपत्ति पर शासन किया) हुआ था। वह राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र थे। जिनका विवाह 25 जून 1955 को अपने जन्म दिन पर ही सीता कुमारी के साथ सम्पन्न हुआ था। इन्हें दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। उन्होंने इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में गोपाल इंटरमीडिएट कॉलेज की स्थापना की थी।
विद्यार्थी जीवन
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था। वह 1947-1948 में उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी के विद्यार्थी यूनियन के अध्यक्ष रहे। विश्वनाथ प्रताप सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्टूडेंट यूनियन में उपाध्यक्ष भी थे। 1957 में उन्होंने भूदान आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। सिंह ने अपनी ज़मीनें दान में दे दीं। इसके लिए पारिवारिक विवाद हुआ, जो कि न्यायालय भी जा पहुँचा था। वह इलाहाबाद की अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिशासी प्रकोष्ठ के सदस्य भी रहे।
राजनीतिक जीवन
विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने विद्यार्थी जीवन में ही राजनीति से दिलचस्पी हो गई थी। वह समृद्ध परिवार से थे, इस कारण युवाकाल की राजनीति में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उनका सम्बन्ध भारतीय कांग्रेस पार्टी के साथ हो गया। 1969-1971 में वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुँचे। उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का कार्यभार भी सम्भाला। उनका मुख्यमंत्री कार्यकाल 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक ही रहा। मुख्यमंत्री के कार्यकाल मे उनकी डकैतो के संदर्भ मे कार्यवाही ख़ासी चर्चा मे रही। इसके पश्चात्त वे 29 जनवरी 1983 को केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री बने। विश्वनाथ प्रताप सिंह राज्यसभा के भी सदस्य रहे। 31 दिसम्बर 1984 को वह भारत के वित्तमंत्री बने। भारतीय राजनीति के परिदृश्य में विश्वनाथ प्रताप सिंह उस समय वित्तमंत्री थे जब राजीव गांधी के साथ में उनका टकराव हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास यह सूचना थी कि कई भारतीयों द्वारा विदेशी बैंकों में अकूत धन जमा करवाया गया है। इस पर वी. पी. सिंह ने अमेरिका की एक जासूस संस्था फ़ेयरफ़ैक्स की नियुक्ति कर दी ताकि ऐसे भारतीयों का पता लगाया जा सके। इसी बीच स्वीडन ने 16 अप्रैल 1987 को यह समाचार प्रसारित किया कि भारत के बोफोर्स कम्पनी की 410 तोपों का सौदा हुआ था, उसमें 60 करोड़ की राशि कमीशन के तौर पर दी गई थी। जब यह समाचार भारतीय मीडिया तक पहुँचा, यह ‘समाचार’ संसद में मुद्दा बन कर उभरा। इससे जनता को यह पता चला कि 60 करोड़ की दलाली में कथित तौर पर राजीव गांधी का हाथ था। बोफोर्स कांड के सुर्खियों में रहते हुए 1989 के चुनाव भी आ गए। वी. पी. सिंह और विपक्ष ने इसे चुनावी मुद्दे के रूप में पेश किया। यद्यपि प्राथमिक जाँच-पड़ताल से यह साबित हो गया कि राजीव गांधी के विरुद्ध जो आरोप लगाया गया था वो बिल्कुल ग़लत तो नहीं है, साथ ही ऑडिटर जनरल ने तोपों की विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में ला दिया था। भारतीय जनता के मध्य यह बात स्पष्ट हो गई कि बोफार्स तोपें विश्वसनीयन नहीं हैं तो सौदे में दलाली ली गई थी (जो की कारगिल युद्ध मे तोपो ने अपनी शक्ति दिखा के विजय मे महत्वपूर्ण रोल निभाकर ये धारणाओ को गलत साबित किया, पर ये सब बाद की बातें है।) इससे पर्दाफाश के कारण राजीव गांधी ने वी. पी. सिंह को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया। वी. पी. सिंह के उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के दावे ने भारत के सभी वर्गों को चौंका दिया। भ्रष्टाचार के कथित आरोपो के मध्य आये लोकसभा चुनाव मे राजीव गांधी के नेतृत्व मे कॉंग्रेस की हार हुई और वी. पी. सिंह इस हार के हीरो बने।
वी. पी. सिंह ने चुनाव की तिथि घोषित होने के बाद जनसभाओं में दावा किया कि बोफोर्स तोपों की दलाली की रक़म ‘लोटस’ नामक विदेशी बैंक में जमा कराई है और वह सत्ता में आने के बाद पूरे प्रकरण का ख़ुलासा कर देंगे। कांग्रेस में वित्त एवं रक्षा मंत्रालय सर्वेसर्वा रहा व्यक्ति यह आरोप लगा रहा था, इस कारण लगा कि वी. पी. सिंह के दावों में अवश्य ही सच्चाई होगी। इस प्रकार इस चुनाव में वी. पी. सिंह की छवि एक ऐसे राजनीतिज्ञ की बन गई जिसकी ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठा पर कोई शक़ नहीं किया जा सकता था। उत्तर प्रदेश के युवाओं ने तो उन्हें अपना नायक मान लिया था। वी. पी. सिंह छात्रों की टोलियों के साथ-साथ रहते थे। वह मोटरसाइकिल पर चुनाव प्रचार करते छात्रों के साथ हो लेते थे। उन्होंने स्वयं को साधारण व्यक्ति प्रदर्शित करने के लिए यथासम्भव कार की सवारी से भी परहेज किया। फलस्वरूप इसका सार्थक प्रभाव देखने को प्राप्त हुआ। वी. पी. सिंह ने एक ओर जनता के बीच अपनी सत्यवादी की छवि बनाई तो दूसरी ओर कांग्रेस को तोड़ने का काम भी आरम्भ किया। जो लोग राजीव गांधी से असंतुष्ट थे, उनसे वी. पी. सिंह ने सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। वह चाहते थे कि असंतुष्ट कांग्रेसी कांग्रेस पार्टी से अलग हो जाएँ। उनकी इस मुहिम में पहला नाम था-आरिफ़ मुहम्मद खान का। आरिफ़ मुहम्मद आरिफ़ मुहम्मद तथा राजीव गांधी एक-दूसरे के बेहद क़रीब थे लेकिन हैदराबाद में शाहबानो केस की वजह से वे राजीव गांधी से खफा थे और विरोधी बन गए थे। वी. पी. सिंह ने विद्याचरण शुक्ल, रामधन तथा सतपाल मलिक और अन्य असंतुष्ट कांग्रेसियों के साथ मिलकर 2 अक्टूबर 1987 को अपना एक पृथक मोर्चा गठित कर लिया। इस मोर्चे में भारतीय जनता पार्टी भी सम्मिलित हो गई। वामदलों ने भी मोर्चे को समर्थन देने की घोषणा कर दी। इस प्रकार सात दलों के मोर्चे का निर्माण 6 अगस्त 1988 को हुआ और 11 अक्टूबर 1988 को राष्ट्रीय मोर्चा का विधिवत गठन कर लिया गया।
प्रधानमंत्री के पद पर
1989 का लोकसभा चुनाव पूर्ण हुआ। कांग्रेस को भारी क्षति उठानी पड़ी। उसे मात्र 197 सीटें ही प्राप्त हुईं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं। भाजपा और वामदलों ने राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन देने का इरादा ज़ाहिर कर दिया। तब भाजपा के पास 86 सांसद थे और वामदलों के पास 52 सांसद। इस तरह राष्ट्रीय मोर्चे को 248 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो गया। वी. पी. सिंह स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बता रहे थे। उन्हें लगता था कि राजीव गांधी और कांग्रेस की पराजय उनके कारण ही सम्भव हुई है। लेकिन चन्द्रशेखर और देवीलाल भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शरीक़ हो गए। ऐसे में यह तय किया गया कि वी. पी. सिंह की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी होगी और चौधरी देवीलाल को उपप्रधानमंत्री बनाया जाएगा। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने सिखों के घाव पर मरहम रखने के लिए स्वर्ण मन्दिर की ओर दौड़ लगाई।
मण्डल कमीशन विरुद्ध कमंडल (रथयात्रा)
व्यक्तिगत तौर पर विश्वनाथ प्रताप सिंह बेहद निर्मल स्वभाव के थे पर प्रधानमंत्री के रूप में उनकी छवि एक मजबूत और सामाजिक राजनैतिक दूरदर्शी व्यक्ति की चाहिए थी। उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को मानकर देश में वंचित समुदायों की सत्ता में हिस्सेदारी पर मोहर लगा कर बड़ा दांव खेला। समाज मे अगड़े- पिछड़े के दो वर्ग बन गए। पूरे देश मे हुल्लड़ और अराजकता का महोल हो गया।
उधर सत्ता मे साथी भाजपा ने मण्डल के विरुद्ध कमंडल का राग आलापा। पक्षप्रमुख आडवाणी की अगवाई मे गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा शुरू की गई। केंद्र सरकार की सूचना से रथयात्रा बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समस्तीपुर मे रोक दी। भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। संसद मे वी. पी. सिंह की सरकार गिर गई। उनही के जनता मोर्चे के साथी श्री चन्द्रशेखर ने अपने 64 संसद सदस्यो के बल पर विपक्ष के नेता राजीव गांधी के सहयोग और समर्थन से सरकार बनाई। (यह सरकार भी अल्पजीवी साबित हुई)
बाद का जीवन
1991 के लोकसभा चुनाव मे वी. पी. सिंह ने चुनाव लड़ा और जीता भी था, पर उनका दल चुनाव हार गया। राजीव गांधी की अकस्मात मृत्यु के कारण देश का राजकीय माहोल ही बादल गया। 1996 के चुनाव मे कॉंग्रेस सत्ता से जब फिर बाहर हुई तो संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए पुराने साथियो ने उन्हे प्रधानमंत्री बनाने की ऑफर दी, पर उन्होने उसे ठुकरा दिया। राजीव गांधी पर लगे आरोप कोर्ट मे साबित नहीं हो पाए और उन पर सेंट किट्स का मामला भी बना। बाद मे उन्हे केन्सर की बीमारी का पता लगने के बाद वे सक्रिय राजनीति से अलग हो गए। उनका बनाया जनमोर्चा उनके बेटे के समय मे 2009 मे कॉंग्रेस मे विलीन हो गया।
निधन
27 नवम्बर 2008 को 77 वर्ष की अवस्था में लंबी बीमारी के बाद वी. पी. सिंह का निधन दिल्ली के अपोलो हॉस्पीटल में हो गया।