अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महूँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।
प्रसगं: प्रस्तुत पंक्तियाँ रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के ‘लंकाकांड’ से अवतरित हैं। युद्ध स्थल में मेघनाद ने शक्ति चलाकर लक्ष्मण को मूर्च्छित कर दिया। जब श्रीराम को यह पता चला तो वे बहुत दुःखी हुए। जांम्बवान ने लंका में रहने वाले सुषेण वैद्य को इलाज के लिए बुलाने का परामर्श दिया। हनुमान छोटा रूप धारण करके सुषेण को घर सहित उठा लाए। सुषेण ने वहाँ आकर पर्वत और औषधि का नाम बताया और हनुमान को यह औषधि लाने का जिम्मा सौंपा। हनुमान जी पर्वत पर तो पहुँच गए पर औषधि को न पहचान पाए अत: पर्वत को ही उखाड़ लाए। मार्ग में भरत से मिलन हो गया। हनुमान जी भरतजी के चरणों की वंदना करके बोले-
व्याख्या: हे नाथ! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर और उनकी आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान जी चल दिए।
भरत जी की भुजाओं के बल शील, गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन-ही-मन बारंबार सराहना करते हुए पवनसुत हुनमान जी चले जा रहे थे।
विशेष: 1. श्रीराम की व्याकुल दशा का मार्मिक अंकन किया गया है।
2. करुण रस का परिपाक हुआ है।
3. ‘मन महुँ,’ ‘पुनि पुनि पवनकुमार’ में अनुप्रास अलंकार है।
4. ‘पुनि-पुनि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
5. भाषा: अवधी।
6. छंद: दोहा।